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रस्टी के कारनामे

रस्किन बॉण्ड

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5116
आईएसबीएन :81-237-1421-1

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रस्किन बॉण्ड की कहानियां....

Rasti ke karname

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अंग्रेजी में लिखने वाले प्रतिष्ठित, लेखक, रस्किन बांड की इस पुस्तक की पहली कहानी में बोर्डिंग स्कूल से दादी के घर आए रस्टी और उसके काका के बीच नोक-झोंक का सुंदर चित्रण है। दूसरी कहानी में रस्टी अपने एक मित्र दलजीत के साथ बोर्डिंग स्कूल की जिंदगी से तंग आकर भाग खड़ा होता है। उन दोनों मित्रों की मंजिल है-जामनगर, जहां से समुद्री जहाज में बिठाकर रस्टी के चाचा उन्हें दूर देश ले जायेंगे...। अनेक कष्ट सहने के बाद वे जब समुद्रतट पर पहुंचते हैं, जब तक जहाज लंगर उठाकर चल चुका होता है..।

दादी की अद्भुत रसोई


दादी का रसोईघर उतना बड़ा तो नहीं था जितने बड़े आम रसोईघर होते हैं सोने के कमरे जितना बड़ा या बैठक जितना लंबा चौड़ा भी नहीं था, लेकिन खासा बड़ा था, और उसके साथ लगा हुआ रसोई-भंडारगृह भी था। दादी का रसोईघर इस दृष्टि से अद्भुत था कि उसमें ढेर सारी चीजें बनती थीं। खाने-पाने के बढ़िया और स्वादिष्ट व्यंजन, जैसे कबाब, सालन, चाकलेट वाली मिठाई चीनिया बादाम वाली टॉफी, मीठी चटनियां और अचार-मुरब्बे, गुलाब जामुन, गोश्त की कचौरी और समोसे, सेब के समोसे, मसालेदार ‘टर्की’ मसालेदार मुर्गी, भरवाँ बैंगन और मसालेदार मुर्गीवाला भरवां हैम।
भोजन बनाने में दुनिया में दादी का कोई मुकाबला नहीं था।

जिस शहर में हम रहते थे, उसका नाम देहरादून था। यह आज भी है। मगर आजादी के बाद यह शहर बहुत फैल गया है और यहां की हलचल और भीड़- भाड़ भी बढ़ गयी है। दादी का अपना घर था-विशाल मगर बेतरतीब तरीके से बना बंगला, जो शहर की सीमा रेखा पर था। बंगले के अहाते में बहुत सारे पेड़ थे। इनमें अधिकतर पेड़ फलों के थे, जैसे आम के पेड़, लीची के पेड़, अमरूद के पेड़ केले के पेड़, पपीते के पेड़, नींबू के पेड़, आदि। इतने सारे पेड़ थे उस बंगले के अहाते में ! इनमें एक कटहल का विशाल पेड़ भी था, जिसकी छाया घर की दीवारों पर पड़ती थी।


‘धन्य है वह घर, जिसकी दीवारों पर
पड़ती है बूढ़े पेड़ की ठंडी नरम छांव..’


दादी के यह शब्द आज भी अच्छी तरह याद हैं मुझे। कितनी सच्ची और खरी बात कहती थीं दादी, क्योंकि वह घर बड़ा सुखकर था, खासकर नौ बरस के उस बालक के लिए, जिसकी भूख बहुत तेज थी। अगर भोजन बनाने के मामले में दादी का कोई सानी नहीं था, तो मुझ जैसा भोजनभट्ट यानी पेटू भी कोई न था। मैं इस नाते भाग्यशाली था कि हर बच्चे की ऐसी दादी नहीं होती जो किसी फरिश्ते की तरह पाक विद्या में निपुण हो, बशर्ते कि फरिश्ते भी रसोई वगैरह बनाते हों)।
हर साल जाड़ों में जब मैं बोर्डिंग स्कूल से घर लौटता, तो असम में अपने माता-पिता के साथ छुट्टियां बिताने से पहले कम से कम एक महीने के लिए मैं अपनी दादी के पास चला आता था। असम में मेरे पिता एक चाय बागान के मैनेजर थे। बेशक चाय बागान में भी मौज-मस्ती रहती थी, लेकिन मेरे माता-पिता ने कभी अपने हाथों से रसोई नहीं बनाई थी। उन्होंने इस काम के लिए एक खानसामा रखा हुआ था, जो मटन-करी तो अच्छी बनाता था, मगर इसके अलावा और कुछ बनाना उसे नहीं आता था। रात को भी भोजन में वही गोश्त मिले तो रोटी गले से नीचे नहीं उतरती खासकर उस लड़के को बार-बार वही गोश्त कैसे अच्छा लग सकता था जिसकी जीभ को भांति-भांति के व्यंजनों का चस्का लग चुका हो।
इसलिए आधी छुट्टियां बिताने के लिए मैं हमेशा दादी के घर जाने को उत्सुक रहता था।

दादी भी मुझे देखते ही खिल उठती थीं, क्योंकि ज्यादा वक्त वह अकेली रहती थीं। भले ही एकदम अकेली नहीं होती थीं...उनका एक माली था, जिसका नाम कांत था। वह आउट हास यानी नौकरों-चाकरों के लिए बने क्वार्टर में रहता था। माली का एक बेटा था, जिसका नाम मोहन था। मोहन तेरी ही उम्र का था, फिर सूजी नामक एक बिल्ली भी थी-मोतिया रंग, छोटे-छोटे बालों और भूरे मुँह वाली नाटी-सी बिल्ली जिसकी आंखें नीली और चमकीली थीं। और फिर, संकर जाति का एक कुत्ता भी था, जिसे सब क्रेजी कहकर पुकारते थे। उसका यह नाम इसलिए रखा गया था, क्योंकि वह घर के चारों ओर चक्कर लगाता रहता था।
इनके अलावा वहां एक केन काका भी थे-दादी के भतीजे। जब कभी केन काका की नौकरी छूट जाती (और ऐसा अक्सर होता रहता था) या जब भी मेरी दादी के हाथों के बने पकवान उड़ाने को उनकी तबीयत मचलती, वह झट उन के यहां आ धमकते थे।

इस तरह, सच्चाई यह थी कि दादी कभी अकेली नहीं रहीं। फिर भी, वह मुझे देखते ही खिल उठती थीं। हमेशा कहतीं, सिर्फ अपने लिए खाना पकाने में मेरा जी नहीं लगता। कोई तो हो, जिसके लिए पकाऊं।’’ हालांकि दादी की बिल्ली दादी का कुत्ता यहां तक कि केन काका भी अक्सर दादी के पकवानों का रस लेते थे, मगर अच्छे रसोईघर की हमेशा यह इच्छा होती है कि वह किसी लड़के को पास बैठाकर खिलाये-पिलाये क्योंकि लड़के बड़े जीवट वाले होते हैं और नये से नये पकवानों को भी चखने और आजमाने को तैयार रहते हैं।
दादी जब कोई नयी चीज बनाकर मेरे लिए परोसती, तो मेरी राय और प्रतिक्रिया जानने को भी उत्सुक रहतीं और फिर मैं जो कुछ कहता उसे एक कापी में नोट कर लेतीं। मेरी ये बातें तब बड़ी उपयोगी साबित होतीं जब दादी वही चीज किसी दूसरे को परोसतीं।
‘‘अच्छी लगी ?’’ मैं कुछ कौर खा चुकता, तो दादी पूछतीं।
‘‘हां, दादी !’’

‘‘मीठी है न ?’’
‘‘हां, दादी !’’
‘‘बहुत मीठी तो नहीं, न ?’’
‘‘नहीं, दादी !’’
‘‘और लोगे ?’’
‘‘हाँ, लूंगा दादी !’’
‘‘ठीक है पहले यह खा लो !’’
‘‘हम्म्।’’
तंदूरी बतख !
तंदूरी बतख बनाने में दादी को महारत हासिल थी।
पहली बार जब मैंने दादी के यहां तंदूरी बतख खायी तो केन काका भी वहां जमे हुए थे।
रेलवे में गार्ड की उनकी नौकरी उन्हीं दिनों छूटी थी और अगली नौकरी की तलाश में उन्होंने दादी के यहां डेरा डाल रखा था। केन काका वहां जितने दिन टिक सकते, टिके रहते और तब तक नहीं टलते जब तक कि दादी पादरी दास के बच्चों के स्कूल में उन्हें असिस्टेंट मास्टर की नौकरी दिलवाने को नहीं कहतीं।

छोटे बच्चे केन काका को फूटी आंख नहीं सुहाते थे। वह अक्सर कहते कि ये लड़के मुझे परेशान करते रहते हैं। परेशानी तो उन्हें मुझसे भी होती थी, लेकिन एक तो मैं अकेला था, दूसरे दादी हरदम केन काका की रक्षा को प्रस्तुत रहती थीं। पादरी दास के स्कूल में तो सौ से ऊपर बच्चे थे।
वैसे तो केन काका भी पूरे भोजनभट्ट थे और मेरी तरह ही स्वादिष्ट चीजें गपागप खाते थे, किंतु दादी के हाथों की बनी रसोई की तारीफ कभी नहीं करते थे। मुझे लगता है। शायद इसी वजह से कभी-कभी मैं केन काका से नाराज हो जाता था और इसीलिए बीच-बीच में उन्हें परेशान करके खुश भी होता था।

केन काका ने तंदूरी बतख की तरफ नजर डाली, तो उनकी ऐनक खिसकती हुई नाक की कोर पर आ टिकी।
‘‘हुक्म...वही बतख, मे आंटी ?’’
‘‘क्या मतलब, वही बतख ?’’ दादी कहतीं, पिछले महीने तू आया था तब से तो तूने बतख नहीं खायी !’’
‘‘मेरा कहने का मतलब था, मे आंटी, केन काका कहते कि आपसे तो किस्म-किस्म की चीजों की उम्मीद रहती है, न !’’
इसके बावजूद केन काका ने दो बार अपनी प्लेट भरकर खायी और जब तक मैं हाथ बढ़ाता, वह अधिकांश बतख डकार गये थे। मुझे और कुछ नहीं सूझा, तो मैंने सारी की सारी सेब की सॉस अपनी प्लेट में उड़ेल ली। केन काका जानते थे कि मुझे तंदूरी बतख बहुत अच्छी लगती है, और मैं भी जानता था कि केन काका दादी की बनायी सेब की सॉस के दीवाने हैं। बस पलड़ा बराबर हो गया।
‘‘अपने माता-पिता के पास कब जा रहा है तू ?’’ मुरब्बे पर हाथ साफ करते हुए केन काका ने आशा भरी दृष्टि से मेरी ओर देखा।

‘‘शायद इस साल मैं उनके पास न जाऊं।’’ मैंने कहा और साथ ही जोड़ दिया, ‘‘और काका ! आपको दूसरी नौकरी कब मिल रही है ?’’
‘‘ओह सोचता हूं, अभी एक- दो महीने आराम करूं।’’
बर्तन वगैरह धोने-पोंछने में मैं दादी और आया की खुशी-खुशी मदद करता था। जब हम इस काम में व्यस्त होते, तो केन काका बरामदे में लेटे झपकी लेते या रेडियो पर नृत्य संगीत सुनते रहते।
‘‘केन काका तुझे कैसे लगते हैं ?’’ एक दिन दादी ने केन काका की प्लेट की हड्डियां कुत्ते के कटोरे में डालते हुए मुझसे पूछा।
‘‘काश ! वह किसी और के अंकल होते,’’ मैंने कहा।
‘‘हट इतने बुरे तो नहीं हैं। हां, थोड़े खब्ती जरूर हैं।’’
‘‘खब्ती क्या होता है, दादी ?’’
‘‘यानी थोड़े झक्की किस्म के-क्रेजी !’’
‘‘लेकिन हमारा क्रेजी कम से कम घर के गिर्द दौडता भागता तो है’’ कहा लेकिन केन काका को दौड़ते हुए मैंने कभी नहीं देखा।

लेकिन एक दिन मैंने यह दृश्य भी देखा।
मोहन और मैं दोनों आम के पेड़ के नीचे कंचे खेल रहे थे। तभी चकित होकर क्या देखते हैं कि केन काका अहाते मैं दौड़े चले आ रहे हैं और शहद की मक्खियों का झुंड उनके पीछे पड़ा है। हुआ यह था कि केन काका सेमल के पेड़ के नीचे खड़े सिगरेट पी रहे थे। उनके एकदम ऊपर मधुमक्खियों का छत्ता था। सिगरेट के धुएं के गुबार से मक्खियां भड़की और केन काका पर टूट पड़ी। बस, केन काका सिर पर पैर रखकर भागे और भीतर जाकर एकदम ठंडे पानी के टब में कूद पड़े। मधुमक्खियों ने कई जगह उन्हें डंक मारे थे। अतः तीन दिन तक केन काका ने बिस्तर में पड़े रहने का फैसला किया। आया उनके लिए ट्रे में भोजन रख कर दे जाती।

‘‘मुझे नहीं मालूम था, केन काका इतना तेज दौड़ सकते हैं,’’ उस दिन बाद में मैंने यह बात कही।
दादी बोलीं ‘‘प्रकृति इस तरह क्षतिपूर्ति करती है।’’
‘‘यह क्षतिपूर्ति क्या होता है, दादी ?’’
‘‘क्षतिपूर्ति यानी किसी चीज की कमी पूरी करना या कसर निकालना अब कम से कम केन काका को यह तो पता चल ही गया है कि वह भाग सकते हैं। क्यों, है न अद्भुत बात !’’




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